दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजे न केवल चौंकाने वाले रहे, बल्कि दिल्ली की राजनीति में एक बड़ा बदलाव लेकर आए। आम आदमी पार्टी , जिसने 2015 में 67 सीटें जीतकर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, इस बार बड़ी हार का सामना करना पड़ा।
अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे दिग्गज नेता भी अपनी सीटें नहीं बचा सके. दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी ने 27 साल बाद दिल्ली में सत्ता में वापसी कर ली। इस हार के बीच सवाल उठता है कि इतने ऐलान और योजनाओं की घोषणा के बाद भी दिल्ली की जनता आप को वापस लेकर क्यों नहीं आई? इस पर कई राजनीतिक विशेषज्ञ अपनी राय दे रहे हैं. जन सुराज के संयोजक प्रशांत किशोर ने 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली चुनाव कैसे हारी, इसकी पूरी कहानी बताई है।
एंटी-इंकम्बेंसी फैक्टर: जनता का असंतोष बढ़ा
प्रशांत किशोर ने बताया कि 10 साल तक सत्ता में रहने के बाद आम आदमी पार्टी को एंटी-इंकम्बेंसी का सामना करना पड़ा. पार्टी ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई सुधार किए, लेकिन दिल्ली की खराब वायु गुणवत्ता और यमुना के प्रदूषित पानी ने जनता की नाराजगी बढ़ाई. उन्होंने कहा कि अरविंद केजरीवाल ने लगातार यह तर्क दिया कि केंद्र सरकार दिल्ली के विकास कार्यों में बाधा डाल रही है, लेकिन जनता ने इसे ‘बहानेबाजी’ के रूप में देखा. नतीजतन, वोटरों का आम आदमी पार्टी से मोहभंग हुआ और उन्होंने सत्ता परिवर्तन का निर्णय लिया।
लिकर स्कैम से पार्टी की छवि पर गहरा असर
प्रशांत किशोर के अनुसार, दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की हार का एक बड़ा कारण अरविंद केजरीवाल का लिकर स्कैम में फंसना और फिर जेल जाने के बाद इस्तीफा देना रहा. इससे पार्टी की ईमानदार छवि को गहरा धक्का लगा और मतदाता आम आदमी पार्टी से दूर होने लगे. इसके अलावा, ‘शीश महल’ विवाद भी केजरीवाल की छवि के लिए नुकसानदेह साबित हुआ. सीएजी रिपोर्ट के अनुसार, सीएम आवास पर 7.91 करोड़ से लेकर 33.66 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जिससे जनता में गलत संदेश गया.
जलभराव और खराब सड़कों की समस्या
दिल्ली में जलभराव और खराब सड़कों की समस्याओं ने भी आम आदमी पार्टी सरकार की गवर्नेंस पर सवाल खड़े किए. लोगों को लगा कि पार्टी जमीनी स्तर पर काम करने में असफल रही है. दिल्ली की सड़कों की बदतर हालत और ट्रैफिक की समस्याओं ने भी जनता को नाराज किया, जिससे उन्होंने भाजपा को एक मौका देने का फैसला किया.
जनाधार हुआ कमजोर
आम आदमी पार्टी का वोट शेयर लगभग 8-9% तक गिर गया, जिससे कई सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। यह संकेत देता है कि पार्टी के समर्थन आधार में सेंध लग चुकी है. दूसरी ओर, भाजपा का वोट शेयर बढ़ा, जो इस बात का प्रमाण है कि पार्टी ने नए मतदाताओं को आकर्षित किया।