कोलकाता : पिछले साल नौ अगस्त का दिन. कोलकाता में जो हुआ उससे पूरा देश सन्न था. आरजीकर मेडिकल कॉलेज के भीतर डॉक्टर बिटिया के साथ बर्बरता की सारी हदें पार हो गईं । दरिंदे संजय रॉय ने रात के सन्नाटे में उसे हॉल में घसीट लिया।
उसकी अस्मत लूटी और फिर हैवानियत का नंगा नाच हुआ। उसके कूल्हे टूटे हुए मिले। आंखें फोड़ दी गई। पूरे देश में आक्रोश की लहर फैल गई. कोलकाता की निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए दिन-रात आंदोलन हुए. फांसी से कम कोई उम्मीद नहीं कर रहा था. खास कर तब जब सीबीआई जैसी एजेंसी ने मामले की जांच की. पर 20 जनवरी को सियालदह की अदालत ने गुनहगार संजय रॉय को उम्रकैद की सजा सुनाई. कोर्ट की नजर में ये दुर्लभतम मामला नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि ये क्या है। तो इसे समझने के लिए आपको 45 साल पहले जाना होगा। जब सुप्रीम कोर्ट ने बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में दुर्लभ से दुर्लभ का सिद्धांत सामने रखा था जिसके आधार पर किसी को फांसी सजा सुनाई जा सकती है।
बचन सिंह का गुनाह : पहले बचन सिंह का गुनाह देख लेते हैं। बचन सिंह अपनी बीवी की हत्या के जुर्म में 14 साल की सजा काट चुका था। इसके बाद रिहा कर दिया गया. वह अपने चचेरे भाई हुकुम सिंह के परिवार के साथ रहने लगा। ये हुकुम की बीवी को नागवार गुजरता. इससे गुस्से में आए बचन सिंह ने चार जुलाई, 1977 के दिन देसा सिंह, दुर्गा बाई और वीरन बाई को कुल्हाड़ी से काट डाला. वहीं उनकी मौत हो गई. इस बार मामला गंभीर था।
पहले बीवी की हत्या और फिर तीन रिश्तेदारों की हत्या. निचली अदालत से फांसी की सजा सुनाई जिसे पंचाब हाई कोर्ट ने सही करार दिया।
बचन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. उसके वकील ने दावा किया कि फांसी की सजा जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. आईपीसी की धारा 302 को निरस्त कर दिया जाए. उसने आईपीसी की धारा 354 (3) को भी असंवैधानिक बताया. आईपीसी की इस धारा में जिक्र है कि मौत या आजीवन कारावास की सजा सुनाते समय इसके कारणों का जिक्र किया जाए. मौत की सजा के मामले में स्पेशल कारण गिनाए जाएं. वादी का कहना था कि इस धारा से जजों को मनमाने अधिकार मिल गए हैं. बचन सिंह के मुताबिक संविधान की धारा 14,19 और 21 का उल्लंघन हर हाल में नहीं होना चाहिए. हालांकि जगमोहन सिंह मामले में 1973 में ही सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया था कि 302 के तहत दिए गए फैसले का मौलिक अधिकारों से लेना देना नहीं है।
ऐतिहासिक फैसला : सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने नौ मई, 1980 को ऐतिहासिक फैसला सुनाया. इस बेंच में चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़, पीएन भगवती, एनएल उंतवालिया, आरएस सरकारिया और जस्टिस एडी कोशल शामिल थे. बेंच ने बचन सिंह की दलीलों को खारिज करते हुए फांसी की सजा को सही ठहराया. हालांकि कुछ शर्तें भी जोड़ दी गई. जिससे Rarest of Rare का सिद्धांत सामने आया. इसमें कहा गया कि अपराध की परिस्थिति के साथ-साथ अपराधी के हालात का भी आकलन किया जाए. आरोपी की उम्र और भविष्य में सुधरने की गुंजाइश भी देखी जाए. उम्रकैद रूल हो और फांसी अपवाद के तौर पर दी जाए. आसाधारण क्रूरता और समाज पर व्यापक असर डालने वाले मामलों में ही फांसी दी जाए. जस्टिस पीएन भगवती ने जजमेंट के खिलाफ अलग फैसला लिखा. उन्होंने आईपीसी की धारा 302 को असंवैधानिक बताया. संजय रॉय के वकील ने इसे आधार बनाते हुए दलीलें रखीं. सियालदह कोर्ट के जज अनिर्बान दास ने माना कि ये केस रेयरेस्ट ऑफ रेयर के दायरे में नहीं है।